Tuesday, October 21, 2014

अनकहा दर्द



सर झुका के चुपचाप बैठा ,
मन ही मन जाने क्या सोचे ,
बस इशारों में बयां करता बातें ,
न कहता कुछ ,न उत्तर देता |

कभी किसी बात पर मुस्कुरा देता बरबस
कभी खुद की गलती पर खिलखिला देता ,
कई अनकही बातें कहना चाहता
पर , जानें क्यों खुद को रोक लेता |

आँखों में इक अजब सी मज़बूरी ,
और उस मज़बूरी को छुपाने की बेचैनी ,
कशमकश बन कर छलकती रह रह कर ,
होठों पे खुलता वो अनकहा दर्द और उसको रोकती वो मासूम हंसी |

अधूरी मुस्कान थी जो खिल न पाती झुर्रियों के बोझ से ,
और अमिट उदासी की छाप ,छुपा लेती थी झुर्रियों को |
फिर नज़रों का सूनापन कई सवालों सा देखता मुझे ,जैसे पूछता हो
"क्या समझ सकते हो दर्द को मेरे ? क्या बाँट लोगे तुम मेरे ग़म ?"
 

No comments:

Post a Comment