Friday, October 17, 2014

श्राप


दे पुत्र क्षमा का दान, रहा था मांग हुआ बूढा  मृगाल ,
कभी गजवज्र था जो हो चला था अब निढाल |

करूँ सम्मान कैसे मैं तेरा ऐ लाल मेरे ,
मेरे हैं हाथ खाली ,अश्रु बस मेरी हैं पूंजी |

मेरी अर्धांगिनी , जननी तेरी, देवी थी कोई ,
न जाने श्राप किसका वो धरा पर भोगती है
मेरी जीवन की गाडी में जुती जिस दिन से है वो ,
न जाने कष्ट कितने सह के इसको खींचती है |

कभी पर्वत से ऊँचे शीश पर चिंता के थे बादल ,
कभी सींचा था जिनको खून से वो कह चले पागल ,
कि जिसकी सिंह गर्जन से कभी वन कांप उठता था ,
वही अब पंक्ति दो पंक्ति में हांफ उठता था ,
कि जिसके सामने न नैन उठते थे कभी ,
उसे सब वृद्ध पा उपहास करने लग पड़े |

जिन्हें अपना समझ सब झोंक डाला प्यार की खातिर ,
वही अब पा मुझे निर्धन मेरा उपहास करते हैं ,
जिन्हें सम्मान का जीवन दिलाने तप किया मैंने ,
वही अब स्वयं ही अपना सदा गुणगान करते हैं |
नहीं है चाह मुझको स्वर्ण आभूषण की उनसे ,
मगर जो हूँ बड़ा तो क्या मुझे सम्मान न देंगे ?

निभाया उम्र भर कर्त्तव्य मैंने था पिता का ,
परन्तु नाम को अधिकार वो पाया न मैंने |
सहोदर मान के बैठा था हैं 'मेरे ही जाये' ,
मगर पहले जहाँ में वो हुए मुझसे पराए |

की जिनकी चाह जीवन भर तिरस्कृत कर गया तुमको ,
समय का फेर देखो , आज मुझसे पूछते हैं ,
"किया है क्या हमारे वास्ते बोलो कभी तुमने ,
दिया सम्मान जो अब तक वो है एहसान तुमपे "

मगर ये भूलते हैं वो बड़े वट वृक्ष बनकर ,
वनों को भी  पनपने को सदा मिट्टी हीं  लगती है ,
मैं वो मिट्टी हूँ जिसपे जड़ जमा कर हैं वो यूँ फैले ,
मैं जिस दिन सूख जाऊंगा ,उन्हें भी सोख जाऊंगा |

हृदय में कष्ट ले कर जो जहाँ से जा रहा हूँ ,
रहें न भ्रम में वे , मैं श्राप बन कर छा रहा हूँ ,
सहा मन और हृदय का कष्ट जो मैंने सदा ,
उन्हें हो "चौगुना" के साथ लौटाता हूँ अब मैं |

 

No comments:

Post a Comment