था उसका दोष क्या पहने जो उसने तंग कपडे ,
था उसका दोष क्या जो रात को निकली थी घर से ,
था उसका दोष क्या आजाद सी फिरती थी जो वो ,
था उसका दोष क्या जो मित्र महिला और पुरुष दोनों थे उसके !
क्या इतने से हीं बस वो भोग की वस्तु हुई ?
क्या इतने से ही तुमको मिल गया अधिकार ये ?
भंभोड़ा जिस्म उसका जाने तुमने सोच कर क्या ?
निचोड़ी आत्मा उसकी न जाने सोच कर क्या ?
की क्षण भर तुम्हें न माँ तुम्हारी याद आई ?
न इक क्षण को भी तुमने देखी थी अपनी कलाई ?
जिसे रौंदा था तुमने वो भी बेटी थी बहन थी ,
जिसे छेड़ा था तुमने वो भी इज्ज़त थी किसी की |
जिसे नवरात्र में दिन रात जग कर पूजते हो ,
उसी का रूप है वो, वो नहीं इन्सान तो समझो !
उसे अपना ना मानो क्यूंकि तुम न हो किसी के ,
मगर भगवान की खातिर उसे इन्सान तो समझो !
अरे इन्सान के जाये हो या हो भेडिये तुम ?
पशु भी होते हैं बेहतर ,तुम्हें एहसास है ?
कलंकित कर दिया है माँ को अपनी हरकतों से ,
बहन की शर्म का तुमको कोई आभास है ?
तुझे मौके मिले जितने तू उनको खुद गँवा बैठा ,
संभल जा आखिरी चेतावनी है ,सुधर जा आखिरी मौका है ये ,
न कर उपहास तू अब जज़्ब की उसके ,
ना उसके क्रोध की अग्नि को अब तू दे हवा ,
प्रलय की आग है ना छेड़ उसको दुष्ट तू !
काली की आंख है जो खुल गई तो भस्म करती जाएगी |
की अब मृत्यु है आकर द्वार पर तेरे खडी,
उसे ना छेड़ अब मिट्टी तुझे कर जाएगी ,
मैं अंतिम बार कहता हूँ तुझे धिक्कार कर ,
ना फिर कहना तू "त्राहिमाम जीवनदान दो "|
No comments:
Post a Comment