Tuesday, October 21, 2014

वो दिवाली


देव कि कमीज़ की पॉकेट से निकल कर कुछ गिरा था | शायद कोई सिक्का था जो लुढ़क कर बिस्तर के नीचे  चला गया था | हनु ने ध्यान नहीं दिया | उसे पटाखे चलाने थे | पापाजी ने पटाखों का एक बड़ा पैकेट खरीद दिया था उसे | खुश था वो | दिवाली उसके लिए बड़ा खास पर्व था | बहुत मज़ा आता था उसे पटाखे चलने में | दीयों और मोमबत्तियों की झिलमिल  रौशनी ,जैसे तारे स्वयं उतर आए हों धरती पर | उसे बचपन से हीं पौराणिक कहानियां बहुत पसंद थीं और देव ,उसके पिता , तो जैसे पूर्व जन्म के वेद व्यास हीं थे | देवी देवताओं की कहानियां इतने शानदार ढंग से सुनाया करते जैसे अपनी आँखों के सामने देखा हो सब | और नन्हा हनु बचपन से हीं जैसे उन कहानियों को अपने सामने जीवंत होते देखता | जैसा नाम था उसका , उसे रामायण के श्रीराम बड़े पसंद थे और हर दिवाली पर वो ऐसे खुश होता ,जैसे राम वनवास से लौट कर सीधे उसके पास हीं आएँगे |

वर्षों से माँ दिवाली पर पकौड़े बनाती थी पर इस साल ऐसा नहीं होगा | शायद पापाजी की तबियत का ध्यान रखते हुए माँ ने ऐसा किया है | इस साल लड्डू की जगह बताशे चढाए गए हैं पूजा पे | भैया का चेहरा उदास सा है |
 हनु को पता है | भैया को लड्डू बहुत पसंद हैं | पर हमेशा उधम मचाने वाली सीनू दीदी भी आज बड़ी शांत सी है | चुपचाप बाहर बरामदे की सीढियों पर बैठी है | भैया इधर उधर घूम रहे हैं ,बेचैन हैं | पर हनु का ध्यान अभी पटाखों की तरफ लगा हुआ है| पूजा हो गई है और अब उसे पटाखे छुड़ाने हैं | इस बार पटाखे कम हैं ,पर बड़ी बात ये है की पापाजी के साथ बाज़ार गया था पटाखे लेने | अजीब विडम्बना थी कि पापाजी के साथ कोई त्यौहार मानाने का मौका उनके बीमार होने पे मिलता था | वरना पुलिस की नौकरी !

अभी शाम की ही तो बात थी , देव हर साल की तरह लाटरी खरीदने जा रहे थे | दिवाली का शगुन | हनु साथ हो लिया | बुलेट की सवारी मिलती तो बात कुछ और थी ,पर पापाजी के साथ बाज़ार जाना वैसे भी बड़ी बात थी | लाटरी खरीदते वक़्त अंक ज्योतिष का पूरा ध्यान रखा गया | पांच टिकट दो दो रूपए के, पांचो बच्चों के मूलांक के हिसाब से | आजकल देव ने पान खाना बहुत कम कर दिया है ,दो तीन दिन में एक आध पान खा लेते हैं | कभी कभी च्युइंग गम से अपनी तलब मिटाने की कोशिश करते हैं | वापसी में हनु के पैर ठिठक गए | पटाखे !
पापाजी ने एक बड़ा पैकेट लिया | सौ पटाखों वाला | हनु की तो मानो अभी लाटरी लग गई | पापाजी कभी मना नहीं करते हैं,बेस्ट पापा हैं !

हनु को जैसे अचानक याद आया ! पापाजी की कमीज़ की पॉकेट से कुछ गिरा था | पलंग के नीचे घुसने पर उसे एक सिक्का मिला, पचास पैसे का ! वो उसे वापस पापाजी की पॉकेट में डालता है | पॉकेट खाली है | पापाजी की सीक्रेट पॉकेट देखी | खाली ! हिसाब जोड़ते जोड़ते उसे समझ में आता है कि माँ ने पकौड़े नहीं बनाए क्योंकि तेल के लिए पैसे नहीं थे | भैया उदास थे क्योंकि बताशे भी तोड़ कर पूजा में चढ़ाए गए थे | सीनू दीदी शांत थी क्योंकि ऐसे हालात में कोई चहक नहीं सकता |

हनु अब स्तब्ध खड़ा था | एक हाथ में पटाखों का पैकेट | दुसरे में पचास पैसे का सिक्का | वो सिक्का ,जो पल पल बड़ा होता जा रहा था | उसमे उसे अपने घरवाले दिख रहे थे | पैसे बचाने के बहाने करते हुए | उसने खुद को भी देखा | पटाखों की फरमाइश करते हुए | पापाजी कभी मना नहीं करते हैं | बाहर आतिशबाजियां हो रहीं हैं ,पर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है | पचास पैसे का सिक्का उसपर हंस रहा है | दीपावली बेकार का पर्व है ,पैसों की बर्बादी | हम लोग पर्व मनाते हीं क्यों हैं ? अमीर लोग अपनी अमीरी दिखाने के लिए | गरीब लोग अपनी गरीबी दिखाने के लिए | पचास पैसे का सिक्का अब भी उसपे हंस रहा है | पूजा पर रखे दिए की आग  में दिवाली जल रही है और पुष्पक विमान भी | सब जल गया | कुछ राख बची ,कुछ धुंआ हो गया | श्रीराम अब कभी नहीं आएँगे |
सिक्के का हँसना कम हो गया है या शायद हनु में इतनी ताक़त नहीं बची की कुछ सुन सके | वो खुद को मरा हुआ महसूस कर रहा है | वो अब शायद कभी दिवाली नहीं मना पाएगा | पचास पैसे का सिक्का उसे मनाने नहीं देगा |

अनकहा दर्द



सर झुका के चुपचाप बैठा ,
मन ही मन जाने क्या सोचे ,
बस इशारों में बयां करता बातें ,
न कहता कुछ ,न उत्तर देता |

कभी किसी बात पर मुस्कुरा देता बरबस
कभी खुद की गलती पर खिलखिला देता ,
कई अनकही बातें कहना चाहता
पर , जानें क्यों खुद को रोक लेता |

आँखों में इक अजब सी मज़बूरी ,
और उस मज़बूरी को छुपाने की बेचैनी ,
कशमकश बन कर छलकती रह रह कर ,
होठों पे खुलता वो अनकहा दर्द और उसको रोकती वो मासूम हंसी |

अधूरी मुस्कान थी जो खिल न पाती झुर्रियों के बोझ से ,
और अमिट उदासी की छाप ,छुपा लेती थी झुर्रियों को |
फिर नज़रों का सूनापन कई सवालों सा देखता मुझे ,जैसे पूछता हो
"क्या समझ सकते हो दर्द को मेरे ? क्या बाँट लोगे तुम मेरे ग़म ?"
 

Sunday, October 19, 2014

प्रतिष्ठा



था उसका दोष क्या पहने जो उसने तंग कपडे ,
था उसका दोष क्या जो रात को निकली थी घर से ,
था उसका दोष क्या आजाद सी फिरती थी जो वो ,
था उसका दोष क्या जो मित्र महिला और पुरुष दोनों थे उसके !

क्या इतने से हीं बस वो भोग की वस्तु हुई ?
क्या इतने से ही तुमको मिल गया अधिकार ये ?
भंभोड़ा जिस्म उसका जाने तुमने सोच कर क्या ?
निचोड़ी आत्मा उसकी न जाने सोच कर क्या ?

की क्षण भर तुम्हें न माँ तुम्हारी याद आई ?
न इक क्षण को भी तुमने देखी थी अपनी कलाई ?
जिसे रौंदा था तुमने वो भी बेटी थी बहन थी ,
जिसे छेड़ा था तुमने वो भी इज्ज़त थी किसी की |

जिसे नवरात्र में दिन रात जग कर पूजते हो ,
उसी का रूप है वो, वो नहीं इन्सान तो समझो !
उसे अपना ना मानो क्यूंकि तुम न हो किसी के ,
मगर भगवान की खातिर उसे इन्सान तो समझो !

अरे इन्सान के जाये हो या हो भेडिये तुम ?
पशु भी होते हैं बेहतर ,तुम्हें एहसास है ?
कलंकित कर दिया है माँ को अपनी हरकतों से ,
बहन की शर्म का तुमको कोई आभास है ? 
 
तुझे मौके मिले जितने तू उनको खुद गँवा बैठा ,
संभल जा आखिरी चेतावनी है ,सुधर जा आखिरी मौका है ये ,
 
न कर उपहास तू अब जज़्ब की उसके ,
ना उसके क्रोध की अग्नि को अब तू दे हवा ,
प्रलय की आग है ना छेड़ उसको दुष्ट तू !
काली की आंख है जो खुल गई तो भस्म करती जाएगी |
 
की अब मृत्यु है आकर द्वार पर तेरे खडी,
उसे ना छेड़ अब मिट्टी तुझे कर जाएगी  ,
 मैं अंतिम बार कहता हूँ तुझे धिक्कार कर ,
ना फिर कहना तू "त्राहिमाम जीवनदान दो "|

Saturday, October 18, 2014




“Is this what one gets out of 42 years of hard work and dedication towards the nation? ” these were the thoughts of Dev , coming out of the pension office at chhapra . He was feeling guilty of what he had been proud of for the last four decades . He was a strong man at body and once at heart but then god had some other plans f...or him . This was perhaps the ultimate test that god had taken him to . The man who did not ask for bribe through his life had to bribe one of his former colleagues to get the benefit of his own work , his hard earned money his pension , gratuity , provident fund and the peace of his mind . Old man with fallen shoulders wasn’t looking a bit relaxed ,for he knew this will raise questions at home.
But for the moment his problem wasn’t this but the problem that he ‘d been facing since retirement , his back and waist were not allowing him to stand straight and poor guy was somehow walking down the road to the chhapra junction and thinking whether he should take a rickshaw or not ‘coz it costs 15 rupees . debating in his mind he was advancing to his destiny . Slow ,Way to slow for the man who could leave young people behind and that too by good margins but not to be now . It all started the day he retired, he lost the weight of DUTY that used to be around his waist for 42 years , the lack of which jolted his body and the same goes on in his mind ,THANKS to the department he served. The rs 15 debate has been won by the mind ,spending which on rickshaw would cut his expenses of PAAN SUPARI . Here comes station, he rushes to the washroom and like a flash comes out in his uniform. What the hell! Is he still in service , huh ! not to be .He did it only for the sake of saving some money – a scarce resource in his life. Vaishali exp is late by 2 hrs. , he’ll take bagh exp ,and he sits down at a bench . 7hrs later he is on the way to home ,his cell phone rings ,he ignores the call .40mins later he reaches home and VASU shouts as he entered the room ,”why were you not picking up the phone ? There are 7 missed calls on your cell and we were so worried, you know?” He’s speechless ,poor guy didn’t hear the ring . “I didn’t hear the ring” somehow he said. “doesn’t your phone have a vibrator ?”. Lull silence prevailed in the room till VASU realized that his father may not know about the features of the phone that was presented to him by his boss at chhapra. He took his phone and activated the feature. Between all that, Jaya gave him to eat,all that was left till evening , he was eating like a beggar , making a lot of noise ,only to add to the anger of his son.

Friday, October 17, 2014


मुझे मालूम था पीछे मेरा उपहास करते थे ,
भले हीं सामने बनते भले थे |

मेरी दुश्वारियां करतीं प्रसन्न तुमको ,
मेरी उपलब्धियों पर तुम जले थे |
थे कैसे तुम सगे ? उमर भर जो ठगे ,
ठगे उसको जो तुमसा था ,तुम्हीं से था,तुम्हारा था  ,
न मानो तुम मगर तुम सा हीं था वो भी दुलारा था |

किया था पाप क्या मैनें जो ना सम्मान पाया ?
क्या सच्चा और सरल होना जहाँ में पाप है ?

तरसता रह गया ताउम्र माँ के प्यार को ,
कभी पाया नहीं अपने किसी अधिकार को ,
लड़कपन में ही वंचित हो गया था पितृ से मैं ,
उमर भर को तिरस्कृत ‌मातृ से था जानें क्यों मैं ?

नहीं मालूम वो क्या पाप मुझसे कोख़ में ही हो गया,
जनम के साथ हीं मैं माँ को जानें क्यों पराया हो गया ।
मेरे अपनों ने मुझको उम्र भर तौला कसौटी पर ,
न जाने क्या कसौटी थी जिसे पूरा न था मैं ?
 

 
 

श्राप


दे पुत्र क्षमा का दान, रहा था मांग हुआ बूढा  मृगाल ,
कभी गजवज्र था जो हो चला था अब निढाल |

करूँ सम्मान कैसे मैं तेरा ऐ लाल मेरे ,
मेरे हैं हाथ खाली ,अश्रु बस मेरी हैं पूंजी |

मेरी अर्धांगिनी , जननी तेरी, देवी थी कोई ,
न जाने श्राप किसका वो धरा पर भोगती है
मेरी जीवन की गाडी में जुती जिस दिन से है वो ,
न जाने कष्ट कितने सह के इसको खींचती है |

कभी पर्वत से ऊँचे शीश पर चिंता के थे बादल ,
कभी सींचा था जिनको खून से वो कह चले पागल ,
कि जिसकी सिंह गर्जन से कभी वन कांप उठता था ,
वही अब पंक्ति दो पंक्ति में हांफ उठता था ,
कि जिसके सामने न नैन उठते थे कभी ,
उसे सब वृद्ध पा उपहास करने लग पड़े |

जिन्हें अपना समझ सब झोंक डाला प्यार की खातिर ,
वही अब पा मुझे निर्धन मेरा उपहास करते हैं ,
जिन्हें सम्मान का जीवन दिलाने तप किया मैंने ,
वही अब स्वयं ही अपना सदा गुणगान करते हैं |
नहीं है चाह मुझको स्वर्ण आभूषण की उनसे ,
मगर जो हूँ बड़ा तो क्या मुझे सम्मान न देंगे ?

निभाया उम्र भर कर्त्तव्य मैंने था पिता का ,
परन्तु नाम को अधिकार वो पाया न मैंने |
सहोदर मान के बैठा था हैं 'मेरे ही जाये' ,
मगर पहले जहाँ में वो हुए मुझसे पराए |

की जिनकी चाह जीवन भर तिरस्कृत कर गया तुमको ,
समय का फेर देखो , आज मुझसे पूछते हैं ,
"किया है क्या हमारे वास्ते बोलो कभी तुमने ,
दिया सम्मान जो अब तक वो है एहसान तुमपे "

मगर ये भूलते हैं वो बड़े वट वृक्ष बनकर ,
वनों को भी  पनपने को सदा मिट्टी हीं  लगती है ,
मैं वो मिट्टी हूँ जिसपे जड़ जमा कर हैं वो यूँ फैले ,
मैं जिस दिन सूख जाऊंगा ,उन्हें भी सोख जाऊंगा |

हृदय में कष्ट ले कर जो जहाँ से जा रहा हूँ ,
रहें न भ्रम में वे , मैं श्राप बन कर छा रहा हूँ ,
सहा मन और हृदय का कष्ट जो मैंने सदा ,
उन्हें हो "चौगुना" के साथ लौटाता हूँ अब मैं |

 
१) चलना संभल कर राह में भटकाव हैं ढेरों ,

रुकना नज़र भर देख के ठहराव हैं ढेरों ,

नहीं घबराना अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलों से ,

अँधेरी रात में भी जुगनुओं की छाँव हैं ढेरों |


२) अब न होगी उनके दायरों में रौशनी कहीं ,
    
     की वो जो रौशनी थे रौशनी खुद हो चले |

३) ज़बरदस्ती के निगेह्बां थे जो कभी ,वो ये गलियां छोड़ चले ,

     क्या इक नज़र के बंद होने से यूँ नज़रें बदलती हैं |

४)
    
    
 

Thursday, October 16, 2014

ये कैसी माँ ?

तेरी ज़िन्दगी में रौशनी की कमी थी , मैंने खुद को जला दिया 
तेरे आँचल में ममता की कमी थी ,मैंने खुद को भुला दिया |
जो तूने ख्वाब देखे पर्वतों से ,सीढ़ी हुआ मैं
जो तेरे दर्द दरिया से थे मैं डूबा था उनमें |

लड़कपन में ही तूने छीन ली मासूमियत मेरी ,
उमर भर रौंदती रहती थी तू मक़बूलियत मेरी |
हर इक दिन बीतता जाता मेरा अग्निपरीक्षा सा ,
गुज़ारा दिन सदा हर एक है मैंने तितीक्षा सा |
मेरे हर कर्म को तूने बताया धर्म मेरा,
कभी तौला नहीं तूने हृदय का मर्म मेरा |
फिकर ना थी तुझे कैसे जियेगा लाल ये तेरा ,
कभी पूछा नहीं तूने पलट कर हाल भी मेरा |

मेरी अर्धांगिनी-संतान की क्या बात मैं पूछूं ,
ये तेरे कौन होते हैं तुझे जब मैं न था प्यारा |

 तेरे आँचल के सदके बंद खुद को कर गया मैं कोठरी में
इक अश्रु भी ना था मेरे लिए ममता की तेरी पोटली में |

तेरी हर कोख़ की दुःख से हिफाज़त मैंने की थी
 तेरे हर एक वादे की ज़मानत मैंने दी थी |

तेरा न तख़्त हिल जाए ,वहां खुद बिछ गया मैं ,
जलाने को तेरा चूल्हा खुद उसमें जल गया मैं

मगर जीवन में जब लाचार पाया खुद को मैंने ,
मैं ये न जानता था तू ही मुझसे पूछ देगी

किया है क्या बताओ तुमने  अब तक वास्ते मेरे ,
लगाए खुद ही बेड़े पार मैंने आजतक मेरे |

मेरे बच्चों में था सामर्थ्य ,बड़े वो हो गए
स्वयं ही जड़ जमा कर के खड़े वो हो गए |

मगर क्यों भूलती है तू ओ मेरी जन्मदाती
 बिना मिटटी के न जीता धरा पर वृक्ष कोई |

 मैं वो मिटटी हूँ जो आधार है बगिया का तेरी ,
मुझे धिक्कार कर तू स्वयं का अपमान ना कर |

तेरा ही अंश था मैं ,तेरा ही वंश था मैं
मगर तेरे लिए निश्चय ही कोई दंश था मैं

मैं खुद को खोखला करता गया ,ऐ माँ  तेरे सदके
मगर ना जान पाया अब भी क्या तू चाहती थी |