मेघनाद
“जानता है रावणी ! जब भी कोई असुर महाअस्त्रों की साधना करता है तो देवराज की निद्रा विलुप्त हो जाती है।” कहते हुए शिव की गम्भीर मेघों के समान हँसी से कैलाश गुंजायमान हो गया। नन्हा सा मेघनाद अब किशोर हो चला था । शिव का अनन्य भक्त और कदाचित सबसे उत्तम शिष्य। ऐसा शिष्य जिसपर स्वयं शम्भू भी गर्व करते थे। युवा मेघनाद ने बहुत प्रयत्न किया पर उसकी सौम्य मुस्कुराहट के पीछे छिपा गर्व और उसकी राक्षसी प्रवृत्ति साफ़ दिख रहे थे। स्कंद को यह दृश्य कभी पसंद नहीं आया पर वे जानते थे की श्री हरि के हीं अंश से जन्मे उनके गण जय के शापित पुनर्जन्म ने महादेव से उनके हीं अंश को अपनी संतान के रूप में माँगाथा। वो जन्मा तो रावणी था पर था शिवांश। एक और शिवांश जो आसुरी प्रवृत्ति में पड़ कर इतिहास को रक्त से लिखेगा और फिर विनाश को प्राप्त होगा। सब जानते थे स्कंद परंतु एक असुर शिव से ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्माण्ड को कम्पित करे ये उन्हें पसंद नहीं था । किंतु माता पार्वती उन्हें हर बार विधाता का लेखा समझा देती थीं। कार्तिकेय गणेश से मंत्रणा करते की जालंधर और अंधक तो शुक्राचार्य सीख उत्पात करते थे पर ये ! ये तो स्वयं महादेव का शिष्य है। अतिमहारथी, अकेला चौरासी लाख योद्धाओं से लड़ने योग्य। अभी ये मंत्रणा चल हीं रही थी की मेघनाद ने पार्वतीनाथ के चरण छू कर आज्ञा माँगी। भगवन ने बिना विचारे उसके सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया क्यूँकि वो जानते थे कि राक्षसकुमार अब नहीं रुकेगा। उसे पता है कि उसका पिता लंकेश्वर रावण त्रिलोक विजय हेतु अमरावती के द्वार पर सिंहनाद कर रहा है।
लंकेश्वर की सेना में एक से एक मायावी योद्धा हैं। एक से एक पराक्रमी। और उन सबसे बढ़ कर उनका सेनापति महाप्रतापी लंकेश्वर रावण।घनघोर युद्ध चल रहा है। इंद्र देवताओं की सेना का नेतृत्व करते हुए चिंतित हैं। देवसेनापति कार्तिकेय और श्री हरि विष्णु की प्रतीक्षा है उन्हें। उन्हें पता है की लंकेश्वर द्वार तक आया है तो कुछ लेकर जाएगा । देवराज को भय है की इस बार उनकी प्रतिष्ठा ना ले जाए। लंकेश्वर का चन्द्रहास देवराज को भयभीत कर रहा है । काली की जिह्वा की लपलपाहट के जैसी चमक देवताओं में भय व्याप्त कर रही है। बस एक खड्ग नहीं है वो, प्रलयंकर का प्रचंड आशीर्वाद है जिसकी प्रचण्डता लंकेश्वर जैसे प्रतापी योद्धा के हाथों में सहस्त्रगुणित हो जाती है।
तभी इंद्र की बाँछें खिल उठती हैं। गणेश सत्य हीं विघ्नहर्ता हैं । कार्तिकेय और श्री हरि विष्णु दोनो को बुला लाए हैं। परंतु भयभीत होना लंकेश्वर ने सीखा हीं कब था ? संग्राम में मृत्यु का भय भी डिगा नहीं सकता उसे। पर आज उसका आत्मविश्वास हिलने लगा था। उसके सभी अस्त्र शस्त्र विफल हो रहे थे। प्रचण्ड चन्द्रहास का प्रहार श्री हरि ने अपनी छाती पर ले लिया। लंकेश्वर का उत्साह हल्का पड़ने लगा। तभी इंद्र ने अपना अमोघ वज्र संधान किया। लंकेश्वर को ज्ञात था की उसका वध इंद्र के हाथों नहीं लिखा है विधाता ने। और फिर आज तो ग्रहों की दशा भी अनुकूल है। वैसे भी लंकेश्वर के विरोध का साहस ग्रहों और नक्षत्रों में कहाँ ! परंतु आज क्या हुआ है ? “अच्छा ! देखता हूँ इनको भी । पहले इस देवराज से निपट लूँ।” लंकेश्वर सशंकित है। आज वज्र को देख कर भुजाओं में कम्पन क्यू है ? “कहीं श्री हरि की कोई माया तो नहीं ?” सोचते हुए लंकेश्वर ने निर्णय कर लिया था की अमरावती के बाद वैकुंठ की बारी है। तभी अंतरात्मा ने कहा की पहले आज प्रतिष्ठा बचनी आवश्यक है।उसने अपने आराध्य महादेव का स्मरण करके हर हर महादेव का उद्घोष किया । उसकी विराट सेना ने “हर हर महादेव और जय लंकेश “ की प्रतिध्वनि की। तभी इंद्र का वज्र छूटा और राक्षस सेना में भय व्याप्त हो गया।उस अमोघ अस्त्र से लंकेश कैसे बचेंगे ? सभी राक्षस त्राहिमाम कर रहे थे की युद्धक्षेत्र में घनघोर अंधकार छा गया। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से प्रकाश करना चाहा पर ये क्या ! ये कैसी माया है ?अंधेरा जस का तस।
विष्णु चिंतित हुए। ये तो शिव की माया है। तो क्या शिव रावण के सहयोग के लिए आ गए ? विनाश हो जाएगा। क्या वे देवसेनापति कार्तिकेय से भी युद्ध करेंगे ? विष्णु सोच में पड़े थे तभी देखा की वज्र उस अंधेरे में लुप्त हो गया। चिंता बढ़ती जा रही थी। सभी चिंतित थे की महादेव और श्री हरि में युद्ध हुआ तो विनाश होगा। परंतु ऐसा हुआ नहीं। एक भयंकर अट्ठहास ने सबका ध्यान खींचा। वो हँसी इंद्र के ऐरावत के ऊपर बने हौदे से आ रही थी। लंकेश्वर प्रसन्न था और सशंकित भी। प्रसन्नता वज्र के लुप्त होने की। कोई अज्ञात और अमोघ सहायता प्राप्त होने की और शंका भी उसी अज्ञात की है। आख़िर कौन है ये जिसने स्वयं मायापति को भ्रमित कर दिया ? अंधेरा हटा तो दिखा । अरे ! ये तो मेघनाद है। प्रलयंकर का शिष्य। रावणी मेघनाद। उसकी भीषण राक्षसी हँसी ने सबके रोंगटे खड़े कर दिए थे।यहाँ तक कि भगवान विष्णु और स्वयं लंकेश्वर के भी। इसके पहले की कोई कुछ समझ पाता वो इंद्र को बन्दी बना कर लुप्त हो गया था। अभी पूरी तरह युवा भी ना हुआ मेघनाद एक पल में बिना लड़े इंद्रजीत बन गया। उसने एक झटके में देवताओं की सेना को हरा दिया था । वो सेना जिसमें कार्तिकेय, गणेश और स्वयं श्रीहरि थे। कार्तिकेय अब गणेश को देख रहे थे, हताश । मानो कह रहे हों,” इसी का भय था मुझे। पिताजी ने इसे शास्त्रों, शस्त्रों और युद्धकला के साथ साथ मायायुद्ध भी सिखाया है।और तामसी माया की तो कोई काट महादेव के अतिरिक्त है हीं नहीं।”
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